Thursday, June 30, 2011

जूते कहाँ उतारे थे

ज़िन्दगी को कभी कभी पीछे मुड़कर देखता हूँ तो बड़ी अजीब लगती है.कहाँ से कहाँ ले आई इतने सालों में.कितने रिश्ते बने,कितने ही बिछड़ गए,कितनी ख़ुशी मिली,कितनी बार उदासी ने घेर लिया,कभी एक लम्हे ने आसमान पे बिठा दिया,तो कभी दुसरे लम्हे ने ज़मीन पर ला पटका.पर जो कूछ भी हो,ये तो यक़ीनन है,की ज़िन्दगी अब तक बड़ी मजेदार रही.एक "उड़ान" Movie की कविता याद आ रही है,आपके साथ बाँटना चाहता हूँ.

छोटी छोटी चित्रायी यादें,
बिछी हुई हैं लम्हों की लान पर.
नंगे पैर उनपर चलते चलते
इतनी दूर आ गए:
की अब भूल गए हैं
जूते कहाँ उतारे थे.

एडी कोमल थी जब आये थे
थोड़ी सी नाज़ुक है अभी भी
और नाज़ुक ही रहेगी;

इन खट्टे मीठे यादों की शरारत
जब तक इन्हें गुदगुदाते रहेगी


सच,भूल गए हैं
की जूते कहाँ उतारे थे
पर लगता है
अब उनकी ज़रुरत नहीं।


ये कविता श्री अमिताभ भट्टाचार्य की लिखी हुई है,और इतनी संजीदी से लिखी गयी है,की लगता है,कवी ने दिल को छू लिया हो.जो भी हो सच ही तो है,जो जीना है जी लो,ये ज़िन्दगी फिर दोबारा नहीं मिलेगी.