ज़िन्दगी को कभी कभी पीछे मुड़कर देखता हूँ तो बड़ी अजीब लगती है.कहाँ से कहाँ ले आई इतने सालों में.कितने रिश्ते बने,कितने ही बिछड़ गए,कितनी ख़ुशी मिली,कितनी बार उदासी ने घेर लिया,कभी एक लम्हे ने आसमान पे बिठा दिया,तो कभी दुसरे लम्हे ने ज़मीन पर ला पटका.पर जो कूछ भी हो,ये तो यक़ीनन है,की ज़िन्दगी अब तक बड़ी मजेदार रही.एक "उड़ान" Movie की कविता याद आ रही है,आपके साथ बाँटना चाहता हूँ.
छोटी छोटी चित्रायी यादें,
बिछी हुई हैं लम्हों की लान पर.
नंगे पैर उनपर चलते चलते
इतनी दूर आ गए:
की अब भूल गए हैं
जूते कहाँ उतारे थे.
एडी कोमल थी जब आये थे
थोड़ी सी नाज़ुक है अभी भी
और नाज़ुक ही रहेगी;
इन खट्टे मीठे यादों की शरारत
जब तक इन्हें गुदगुदाते रहेगी
सच,भूल गए हैं
की जूते कहाँ उतारे थे
पर लगता है
अब उनकी ज़रुरत नहीं।
ये कविता श्री अमिताभ भट्टाचार्य की लिखी हुई है,और इतनी संजीदी से लिखी गयी है,की लगता है,कवी ने दिल को छू लिया हो.जो भी हो सच ही तो है,जो जीना है जी लो,ये ज़िन्दगी फिर दोबारा नहीं मिलेगी.
Thursday, June 30, 2011
Wednesday, June 29, 2011
मुलाकात आईने से
बहुत दिनों बाद मुझे मेरे ब्लॉग की याद आई.या ऐसा कहूँ की मुझे खुद की याद आई.कहाँ खुद को भूला बैठा था इतने दिनों तक पता नहीं.बहुत कूछ नींद से जागने जैसा।एक कहानी याद आ गयी,आज वोही याद आ रहा है।
एक दिन सम्राट अकबर के दरबार में एक पागल आदमी आया.मैले कुचैले कपडे थे उसके सारे शारीर पर.इधर उधर घूमता रहता था,किसीसे कूछ भी नहीं कहता था.सब लोग उसे देखके हंसने लगे।
ऐसा रोज़ ही होने लगा.पहले तो दरबार के लोगों ने उसकी अनदेखी की,फिर बहुत हंसी उड़ाई,फिर भी जब उस आदमी का बर्ताव नहीं बदला तो वो आग बबूला हो उठे और उसे गालियाँ देने लगे,और पत्त्थर मारने लगे.अकबर ने देखा तो उस आदमी से पूचा तुम कूछ बोलते क्यूँ नहीं?इसपर वो आदमी सबको दुयाएँ देने लगा.अकबर हैरान हो गया.उसने कहा ये क्या,ये सब तुम्हे कोस रहे हैं और तुम इन्हें दुयाएँ दे रहे हो!इस पर वो पागल बोल पड़ा,हुज़ुर जिसके पास जो अन्दर होगा,वो दूसरों को वोहि तो देगा।
मेरी हालत भी कूछ ऐसी ही थी.ऐसा लग रहा था,की जैसे दूसरों से बाँटने के लिए कूछ भी न बाकी हो,खुद के अंदर.अचानक आज ऐसा लगा की कूछ लिखूं.लिखना सिर्फ दूसरों से ही नहीं,खुद से भी तो मुलाकात ही है.
एक दिन सम्राट अकबर के दरबार में एक पागल आदमी आया.मैले कुचैले कपडे थे उसके सारे शारीर पर.इधर उधर घूमता रहता था,किसीसे कूछ भी नहीं कहता था.सब लोग उसे देखके हंसने लगे।
ऐसा रोज़ ही होने लगा.पहले तो दरबार के लोगों ने उसकी अनदेखी की,फिर बहुत हंसी उड़ाई,फिर भी जब उस आदमी का बर्ताव नहीं बदला तो वो आग बबूला हो उठे और उसे गालियाँ देने लगे,और पत्त्थर मारने लगे.अकबर ने देखा तो उस आदमी से पूचा तुम कूछ बोलते क्यूँ नहीं?इसपर वो आदमी सबको दुयाएँ देने लगा.अकबर हैरान हो गया.उसने कहा ये क्या,ये सब तुम्हे कोस रहे हैं और तुम इन्हें दुयाएँ दे रहे हो!इस पर वो पागल बोल पड़ा,हुज़ुर जिसके पास जो अन्दर होगा,वो दूसरों को वोहि तो देगा।
मेरी हालत भी कूछ ऐसी ही थी.ऐसा लग रहा था,की जैसे दूसरों से बाँटने के लिए कूछ भी न बाकी हो,खुद के अंदर.अचानक आज ऐसा लगा की कूछ लिखूं.लिखना सिर्फ दूसरों से ही नहीं,खुद से भी तो मुलाकात ही है.
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